तब मुझे अपने बाहुपाश में, लेने आगे बढ़ती है यह डाली
मुझे आभास होता है यह, जैसे मुझे कह रही है यह डाली
क्यों सोचती हो तुम कि तू, यहाँ है मात्र अकेली
मैं गौर से देखती हूँ, इसके हर पत्ते की हरियाली
तो मुझे लगने लगती है, हर वस्तु हर नज़र उजियाली
सूर्योदय के होते ही मुझे दिखाई देती, उसकी आभा नयी निराली
सूर्यास्त के होते ही यह लजीली, बन जाती है मेरे लिए पहेली
जैसे ही क्षितिज पर, छा जाती है लाली
घरों में भी यहाँ वहाँ, रंग लाती है खुशियाली
मुझे बार बार सचेत करती है यह, सुनो धव्नि चरवाहों की सुरीली
जैसे कोई दूर बजा रहा हो, मंद मधुर मीठी मुरली
पर रात्रि की नीरवता, करती है मुझमे खलबली
शीघ्रः ही दूर करती मेरी व्यग्रता, पुनः डूल्टि हुई यह सजीली
बहुत बार निराशा के अँधेरे में, घिर जाती हूँ मैं अकेली
तब मुझे अपने बाहुपाश में, लेने बढ़ती है आगे यह डाली।
-- श्रीमती प्रभा एस. कामड़ी
(सेवानिवृत्त, स्नातकोत्तर हिंदी शिक्षिका)